अक्सर किताबों में मिला करती है
उनकी रूह की महक कोई नज़्म सी मालूम होती है
हज़ारों दफ़ा पढ़ी है
समझी है, समझायी है
कुछ लफ़्ज़ अधूरे रह जाते हैं
कुछ बातें फिर छिड़ जाती हैं
वो फिर एक बार उनका ख़फ़ा होना
और बहाने से मुझसे जुदा होना
नाराज़गी के क़िस्से भी यूँ साँस ले रहे हैं
मानो वस्ल की सुबह अब नसीब ही ना हो
Wow lovely.
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Thank you Kritika!
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Welcome 🙂
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This was a treat to read :’)
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Aw I’m glad, thank you!
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आप पिरोती रहें, शब्दों को ऐसे,
मानो कोई मोतियों की माला हो।
इतना नशा आपके लफ्ज़ देते,
मानो किसी जाम का प्याला हो।
Absolutely fantastic writing. I mean wow. 😊
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Bohot khoob, bohot shukriya!
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